शिक्षा का अर्थ, परिभाषा, प्रकार एवं कार्य

By Bandey |  | No comments
अनुक्रम -
शिक्षा के लिये प्रयुक्त अँग्रेजी शब्द एजुकेशन (Education) पर
विचार करें तो भी
उसका यही अर्थ निकलता है। ‘‘एजूकेशन’’ शब्द की उत्पत्ति लेटिन भाषा के तीन
शब्दों से मानी गयी है।
  1. एजुकेटम – इसका अर्थ है- शिक्षण की क्रिया
  2. एजुकेयर – शिक्षा देना- ऊपर उठाना, उठाना
  3. एजुसियर – आगे बढ़ना
सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि शिक्षा का अर्थ है- प्रशिक्षण, संवर्द्धन
और पथ-प्रदर्शन करने का कार्य। इस प्रकार एजुकेशन का सर्वमान्य अर्थ हुआ बालक
की जन्मजात शक्तियों या गुणों को विकसित करके उसका सर्वांगीण विकास करना।
इस शिक्षा प्रक्रिया के स्वरूप की व्याख्या करने में मूल भूमिका दार्शनिक, समाजशास्त्रियों, राजनीतिशास्त्रियों, अर्थशास्त्रियों और वैज्ञानिकों ने अदा की है। सभी
ने शिक्षा को अपने-अपने दृष्टिकोणों से देखा-परखा और परिभाषित किया है।

शिक्षा का दार्शनिक सम्प्रत्यय

दर्शन का विचार केन्द्र मनुष्य होता है।
मानव जीवन के अन्तिम उद्देश्य की प्राप्ति का साधन मार्ग निश्चित करने में दार्शनिकों
की रूचि होती है। मानव जीवन के अन्तिम उद्देश्य के सम्बंध में दार्शनिकों के भिन्न
मत हैं, अत: इसका प्रभाव उनके द्वारा दी गयी परिभाषाओं में स्पष्ट झलकता है।
  1. जगतगुरू शंकराचार्य की दृष्टि में –स: विद्या या विमुक्तये।
  2. भारतीय मनीणी स्वामी विवेकानन्द के अनुसार – शिक्षा के द्वारा मनुष्य को
    अपने पूर्णता को भी अनुभूति होनी चाहिए। उनके शब्दों में- ‘‘ मनुष्य की
    अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है।’’
  3. युगपुरूष महात्मा गॉधी के शब्दों में- ‘‘ शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक और
    मनुष्य के शरीर, मन तथा आत्मा के सर्वांगीण एवं सर्वोत्कृष्ट विकास से है।’’
  4. यूनानी दार्शनिक प्लेटो शिक्षा के द्वारा शरीर और आत्मा दोनों क विकाश के
    महत्व को स्वीकार करते है। उनके अनुसार – ‘‘ शिक्षा का कार्य मनुष्य के
    शरीर और आत्मा को वह पूर्णता प्रदान करना है, जिसके कि वे योग्य हैं।’’ 
  5. प्लटेो के शिष्य अरस्तू के अनुसार – ‘‘स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का निर्माण
    ही शिक्षा है।’’
  6. भौतिकवादी चार्वाकों की दृष्टि में-’’शिक्षा वह है जो मनुष्य को सुखपूर्वक
    जीवन व्यतीत करने के योग्य बनाती है।’’
  7. हरबर्ट स्पेन्सर के अनुसार-’’शिक्षा का अर्थ अन्त: शक्तियों का बाह्य जीवन
    से समन्वय स्थापित करना है।’’

शिक्षा का समाजशास्त्रीय सम्प्रत्यय

समाज शास्त्रियों का विचार केन्द्र
समाज होता है और वे शिक्षा को व्यक्ति एवं समाज के विकास का साधन मानते
हैं। उन्होनें शिक्षा प्रक्रिया की प्रकृति के विषय में तथ्य उजागर किये-
  1. शिक्षा एक समाजिक प्रक्रिया है- समाजशास्त्रियों के अनुसार जब दो या
    दो से अधिक व्यक्तियों के बीच सामाजिक अन्त: क्रिया होती है तो वे एक दूसरे
    की भाषा, विचार, आचरण से प्रभावित होते हैं, यही सीखना है और जब कुछ
    कार्य निश्चित उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किया जाता है तो वह शिक्षा
    कहलाती है। समाजशास्त्रियों ने स्पष्ट किया कि शिक्षा समाज के उद्देश्यों एंव
    लक्ष्यों को प्राप्ति का साधन है जैसा समाज होता है वैसी उसकी शिक्षा होती
    है।
  2. शिक्षा एक अनवरत प्रक्रिया है – समाजशास्त्रियों का दसू रा तथ्य यह है
    कि शिक्षा समाज में सदैव चलती है। जन्म से प्रारम्भ होकर अन्त तक चलती
    रहती है। शिक्षा पीढ़ी दर पीढ़ी चलती है। निरन्तरता उसका दूसरा लक्षण है।
    जे0एस0 मेकजी के अनुसार- ‘‘शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है, जो आजीवन चलती
    रहती है, और जीवन के प्राय: प्रत्येक अनुभव से उसके भण्डार में वृद्धि होती
    है।’’ प्रो0 डमविल के अनुसार- ‘‘शिक्षा के व्यापक अर्थ में वे सभी प्रभाव आते
    हैं जो व्यक्ति को जन्म से लेकर मश्त्यु तक प्रभावित करते हैं।’’
  3. शिक्षा एक द्वि-ध्रुवीय प्रक्रिया है- समाजशास्त्रियों ने स्पष्ट किया है कि
    शिक्षा की प्रक्रिया में एक पक्ष प्रभावित करता है और दूसरा पक्ष प्रभावित होता
    है। शिक्षा के दो ध्रुव होते हैं- एक वह जो प्रभावित करता है (शिक्षक) और
    दूसरा वह जो प्रभावित होता है (शिक्षार्थी)। जान डी0वी0 ने शिक्षा के दो धु्रव
    माने है- एक मनोवैज्ञानिक और दूसरा सामाजिक। मनोवैज्ञानिक अंग से
    उनका तात्पर्य सीखने वाले की रूचि, रूझान और शक्ति से है और सामाजिक
    अंग से उनका तात्पर्य उनके सामाजिक पर्यावरण से है।
  4. शिक्षा विकास की प्रक्रिया है- मनुष्य की शिक्षा उसे केवल परिस्थितियों के
    साथ सामन्जस्य करना ही नही सिखाती है वरन् उसे सामाजिक परिवर्तन करने
    और परिवर्तनों को स्वीकारने के लिये तैयार करती है। इस प्रकार शिक्षा के
    उद्देश्य पाठ्यचर्चा और शिक्षण विधियों आदि में आवश्यकतानुसार परिवर्तन
    होता रहता है। डा0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने स्पष्ट कहा है कि- ‘‘शिक्षा को
    मनुष्य और समाज देानेां का निर्माण करना चाहिये।’’
  5. शिक्षा एक गतिशील प्रक्रिया है- शिक्षा वह माध्यम है जिसके द्वारा मनुष्य अपनी सभ्यता एवं संस्कृति में निरन्तर विकास करता है। इस विकास के लिये
    उसकी एक पीढ़ी अपने ज्ञान, कला, कौशल को दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित
    करती है। इस हस्तान्तरण को प्रत्येक समाज विद्यालयी शिक्षा में समाहित
    करता है। अगर शिक्षा गतिशील न होती तो हम विकास न कर पाते। पाश्चात्य
    जगत के प्रसिद्ध समाजशास्त्री ओटवे महोदय ने शिक्षा के स्वरूप एवं कार्य
    दोनों को समाहित करते हुये स्पष्ट कहा है कि- ‘‘शिक्षा की सम्पूर्ण प्रक्रिया
    व्यष्टियों एवं सामाजिक समूहों के बीच की अन्त:क्रिया है जो व्यष्टियों के
    विकास के लिये कुछ निश्चित उद्देश्यों से की जाती है।’’ टी0 रेमण्ट महोदय
    ने शिक्षा को इस रूप में परिभाषित किया है- ‘‘शिक्षा विकास की प्रक्रिया है
    जिसमें मनुष्य शैशवकाल से प्रौढ़काल तक विकास करता है और जिसके द्वारा
    वह धीरे-धीरे अपने को अनेक प्रकार से अपने प्राकश्तिक सामाजिक और
    आध्यात्मिक पर्यावरण के अनुकूल बनाता है।’’

शिक्षा का आर्थिक सम्प्रत्यय 

अर्थशास्त्रियों के विचार समाज कें
आर्थिक श्रोत और आर्थिक तन्त्र होते है। शिक्षा को वे एक उत्पादक क्रिया के
रूप में स्वीकार करते हैं। उनकी दृष्टि में शिक्षा उपभोग की वस्तुओं के साथ
उत्पादन की भी कारक होती है। णोध ये परिणाम देते हैं कि शिक्षित मनुष्य
की उत्पादन शक्ति और संगठन क्षमता अशिक्षित व्यक्ति की अपेक्षा अधिक
होती है। अर्थशास्त्री शिक्षा को एक निवेश के रूप में स्वीकार करते हैं। उनकी
दृष्टि से- शिक्षा वह आर्थिक निवेश है जिसके द्वारा व्यक्ति में उत्पादन एंव
संगठन के कौशलों का विकास किया जाता है और इस प्रकार व्यक्ति, समाज
और राष्ट्र की उत्पादन क्षमता बढ़ाई जाती है और उनका आर्थिक विकास होता
है।

शिक्षा का मनोवैज्ञानिक सम्प्रत्यय

भारतीय योग मनोविज्ञान का
विचार केन्द्र मनुष्य का बाह्य स्वरूप और उसका अन्त: करण दोनो होते हैं।
बाह्य स्वरूप में वह उसकी कर्मेन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों का अध्ययन करता है
और अन्त:करण में मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त और आत्मा का अध्ययन करता
है। उसकी दृष्टि से- शिक्षा का अर्थ है मनुष्य की बाह्य इन्द्रियों और
अन्त:करण का प्रशिक्षण। शिक्षा के द्वारा सर्वप्रथम शरीर मस्तिष्क और चित्त
एवं आत्मा का विकास होना चाहिए। इस विषय में जर्मन शिक्षाशास्त्री
पेस्टालॉजी का मत है कि यह विकास स्वाभाविक, सम और प्रगतिशील होना
चाहिये। उनके शब्दों में- ‘‘शिक्षा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का स्वाभाविक
समरस और प्रगतिशील विकास है। पेस्टालॉजी के शिष्य फ्रोबेल ने शिक्षा को इस रूप में परिभाषित किया है-
‘‘शिक्षा वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा बालक अपनी आन्तरिक शक्तियों को
बाहर की ओर प्रकट करता है।’’

शिक्षा का वैज्ञानिक सम्प्रत्यय 

वैज्ञानिको  का विषय क्षेत्र सम्पूर्ण
ब्रह्माण्ड एवं समस्त क्रियायें है। वे किसी भी वस्तु अथवा क्रिया को वस्तुनिष्ठ
ढंग से देखते हैं। शिक्षा को वे मनुष्य की शक्तियोंके बाह्य जीवनानुकूल
विकास के साधन रूप में स्वीकार करते है। हरबर्ट स्पेन्सर के शब्दो में- ‘‘शिक्षा
का अर्थ अन्त:शक्तियों का बाह्य जीवन से समन्वय स्थापित करना है।’’

शिक्षा की परिभाषा

विभिन्न शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा को अपने-अपने दृष्टिकोण से देखा है।
  1. सुकरात-’’शिक्षा का अर्थ है- प्रत्यके मनुष्य के मस्तिष्क में अदृश्य रूप में
    विद्यमान संसार के सर्वमान्य विचारों को प्रकाण में लाना।’’
  2. एडीसन-’’अब शिक्षा मानव मस्तिष्क को प्रभावित करती है तब वह उसके
    प्रत्येक गुण को पूर्णता को लाकर व्यक्त करती है।’’ 
  3. फ्राबेल- ‘‘शिक्षा वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा बालक की जन्मजात शक्तियॉ
    बाहर प्रकट होती है।’’
  4. टी0पी0नन-’’शिक्षा व्यक्तित्व का पूर्ण विकास है जिससे कि व्यक्ति अपनी
    पूर्ण योग्यता के अनुसार मानव जीवन को योगदान दे सके।’’
  5. पेस्टालॉजी- ‘‘शिक्षा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का स्वाभाविक सामजंस्यपूर्ण
    और प्रगतिशील विकास है।’’
  6. जेम्स- ‘‘शिक्षा कार्य सम्बध्ं ाी अर्जित आदतों का सगंठन है, जो व्यक्ति को
    उसके भौतिक और सामाजिक वातावरण में उचित स्थान देती है।’’
  7. हार्न-’’शिक्षा शारीरिक और मानसिक रूप से विज्ञान विकसित सचते मानव
    का अपने मानसिक संवेगात्मक और संकल्पित वातावरण से उत्तम सामंजस्य
    स्थापित करना है।’’
  8. ब्रा्रा्उन-’’शिक्षा चैतन्य रूप में एक नियंत्रित प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति के
    व्यवहार में परिवर्तन किये जाते हैं और व्यक्ति के द्वारा समूह में।’’

शिक्षा का व्यापक एवं संकुचित अर्थ

किसी समाज में किसी बच्चे की शिक्षा उसके परिवार, छोटे बड़े विभिन्न
सामाजिक समूहों, सामुदायिक केन्द्रों और विभिन्न प्रकार के विद्यालयों में चलने वाली
शिक्षा को ही शिक्षा कहते हैं। इस प्रकार शिक्षा शब्द का प्रयोग दो रूपो में होता है-
एक व्यापक रूप में और दूसरा संकुचित रूप में।

शिक्षा व्यापक अर्थ में- 

शिक्षा अपने व्यापक अर्थ में आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है।
दूसरे शब्दों में व्यक्ति अपने जन्म से मश्त्यु तक जो कुछ सीखता और अनुभव करता है
वह सब शिक्षा के व्यापक अर्थ के अन्तर्गत माना जाता है। शिक्षाशास्त्री जब शिक्षा
की बात करते हैं तो वे शिक्षा के इसी रूप को अपनी विचार सीमा में रखते हैं। इस
सम्बंध में हम विद्वानों के विचारों को नीचे अंकित कर रहे हैं। यथा-
लाज- ‘‘बच्चा अपने माता-पिता को और छात्र अपने शिक्षको को शिक्षिता करता है।
प्रत्येक बात, हम जो कहते, सोचते या करते हैं हमें किसी प्रकार भी दूसरे व्यक्तियों के
द्वारा कहीं, सोची या की गयी बात से कम शिक्षित नहीं करती है। इस व्यापक अर्थ
में जीवन शिक्षा है और शिक्षा जीवन है।’’
टी0 रेमेमण्ट- ‘‘शिक्षा विकास का वह क्रम है, जिससे व्यक्ति अपने को धीरे-धीरे
विभिन्न प्रकार से अपने भौतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक वातावरण के अनुकूल बना
लेता है। जीवन ही वास्तव में शिक्षित करता है। व्यक्ति अपने व्यवसाय, पारिवारिक
जीवन, मित्रता, विवाह, पितृत्व, मनोरंजन, यात्रा आदि के द्वारा शिक्षित किया जाता है।’’

शिक्षा संकुचित अर्थ में- 

शिक्षा के सीमित अर्थ के अनुसार बालक को स्कलू में दी
जाने वाली शिक्षा से है। दूसरे शब्दों में बालक को एक निश्चित योजना के अनुसार,
एक निश्चित समय और निश्चित विधियों से निश्चित प्रकार का ज्ञान दिया जाता है।
यह शिक्षा कुछ विशेष प्रभावों और विशेष विषयों तक ही सीमित रहती है। बालक इस
शिक्षा को कुछ ही वर्षों तक प्राप्त कर सकता है इसको प्राप्त करने का मुख्य स्थान
विद्यालय होता है। शिक्षा देने वाला शिक्षक कहलाता है। शिक्षा के संकुचित अर्थ की
ओर अधिक स्पष्ट करने के लिये हम कुछ विद्वानों के विचारों को नीचे दे रहे हैं। यथा-
टी0रेमण्ट- ‘‘संकुचित अर्थ में शिक्षा का प्रयोग बोलचाल की भाषा और कानून में किया
जाता है। इस अर्थ में शिक्षा व्यक्ति, आत्म-विकास और वातावरण के सामान्य प्रभावों
को अपने में कोई स्थान नहीं है। इसके विपरीत यह केवल उन विशेष प्रभावों को अपने
में स्थान देती है, समाज के अधिक आयु के व्यक्ति जानबूझकर और नियोजित रूप में
अपने से छोटों पर डालते हैं भले ही ये प्रभाव परिवार, धर्म या राज्य द्वारा डाले जाये।’’

शिक्षा की प्रक्रिया

एडम द्वारा परिभाषित शिक्षा की प्रक्रिया को इस रूप में प्रदिश्र्णत किया जा
सकता है शिक्षक शिक्षण प्रक्रिया शिक्षार्थी एडम के अनुसार शिक्षा की प्रक्रिया दो ध्रुवों
के बीच चलती है जिसमें शिक्षक का परिपक्व अनुभव, व्यक्तित्व, शिक्षार्थी के अपरिपक्व
व्यक्तित्व में वांछित परिवर्तन लाने का कार्य करता है। शिक्षार्थी के विकास की यह
प्रक्रिया न केवल संचेतन होती है, अपितु सविमर्श होती है अर्थात् शिक्षक के सम्मुख
शिक्षार्थी के विकास की दिशायें स्पष्ट एवं पूर्व निर्धारित होती है। यह परिवर्तन दो माध्
यमों से होता है। प्रथम तो अध्यापक के व्यक्तित्व के प्रत्यक्ष प्रभाव एवं द्वितीय ज्ञान के
विविध रूपों द्वारा। कठोपनिणद् में शिक्षण की प्रक्रिया जो इस रूप में व्याख्या की गयी
है।
सहनाववतु सहनौभुनक्तु सहवीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विणावहै।।
  1. सहनाववतु- साथ-साथ हम एक दूसरे की रक्षा करे अर्थात् शिक्षक शिक्षार्थी दोनो ही
    एक दूसरे के नैतिक विकास में सहायक होते हैं, तथा सम्भावित पतन से एक दूसरे की
    रक्षा की जाती है।
  2. सहनौभुनक्तु- साथ-साथ उपभोग करें अथार्त् ज्ञानाजर्न से उपलब्ध सिद्धियों का
    उपभोग शिक्षक व छात्र मिल-जुलकर करें। अर्थात् ज्ञान की वृद्धि भी साथ-साथ होती
    है।
  3. सहवीर्यं करवाव है- एक दूसरे के शौर्य की रक्षा करे।
  4. तेजस्विनावधीतमस्तु- अध्ययन के फलस्वरूप तजे स्वी बनें।
  5. सा विद्विणावहै- एक दूसरे की उन्नति से ईष्या न करें।
    उक्त व्याख्या यह स्पष्ट करती है कि शिक्षा की प्रक्रिया दो तरफा है शिक्षक
    और शिक्षार्थी दोनों एक दूसरे से प्रभावित होते हैं।

शिक्षा के अंग अथवा घटक

शिक्षा प्रक्रिया के मुख्यत: दो अंग होते हैं- एक सीखने वाला और दूसरा
सिखाने वाला। नियोजित शिक्षा में सीखने वाले शिक्षार्थी कहे जाते हैं और सिखाने वाले
शिक्षक। नियोजित शिक्षा के तीन अंग और होते हैं- पाठ्यचर्या, पर्यावरण और शिक्षण
कला एंव तकनीकी।

शिक्षार्थी – 

इसका अर्थ है सीखने वाला। यह शिक्षा प्रक्रिया का सबसे पहला और
मुख्यतम अंग होता है। शिक्षार्थी की अनुपस्थिति में शिक्षा की प्रक्रिया चलने का केाई
प्रश्न ही नहीं। शिक्षा अपनी रूचि, रूझान और योग्यता के अनुसार ही सीखता है।
सीखने की क्रिया शिक्षार्थी के शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य, उसकी अभिवृद्धि,
विकास एवं परिपक्वता और सीखने की इच्छा, पूर्व अनुभव, नैतिक गुणों, चरित्र, बल,
उत्साह, थकान एवं उसकी अध्ययनशीलता पर निर्भर करती है। अध्यापक सीखने में
एक सहायक रूप में कार्य करता है।

शिक्षक- 

शिक्षा के व्यापक अर्थ में हम सब एक दूसरे को प्रभावित करते है,ं सीखते
हैं, इसलिये हम सभी शिक्षार्थी और सभी शिक्षक हैं। परन्तु संकुचित अर्थ में कुछ विशेष
व्यक्ति, जो जान बूझकर दूसरों को प्रभावित करते हैं और उनके आचार-विचार में
परिवर्तन करते हैं, शिक्षक कहे जाते हैं। शिक्षक के बिना नियोजित शिक्षा की कल्पना
आज भी सम्भव नहीं है। शिक्षक बालक के विकास में पथ-प्रदर्णक का कार्य करता है।
पाठ्यचर्या- नियाेि जत शिक्षा के उद्देश्य निश्चित होते है। इन निश्चित उद्देश्यों की
प्राप्ति के लिये बच्चों को ज्ञान की विभिन्न शाखाओं अर्थात् विषयों का ज्ञान कराया जाता
है, और उन्हें विभिन्न प्रकार की क्रियायें करायी जाती हैं। सामान्यत: इन सबको
पाठ्यचर्या कहा जाता है। वास्तविक अर्थ में पाठ्यचर्या और अधिक व्यापक होती है,
उनमें विषयों के ज्ञान एवं क्रियाओं के प्रशिक्षण के साथ -साथ वह पूर्ण सामाजिक
पर्यावरण भी आता है, जिसके द्वारा यथा उद्देश्यों की प्राप्ति की जाती है।

शिक्षा के प्रकार

समकालीन शिक्षा विचारक जिद्दू कृष्णमूर्ति के अनुसार-’’शिक्षा बचपन से ही
जीवन की समूची प्रक्रिया को समझने में सहायता करने की क्रिया है।’’ अर्थात् उनके
अनुसार शिक्षा का अर्थ समग्र जीवन का विकास, सम्पूर्णता, जीवन का समूचापन।
उनका मानना है कि- ‘‘जीवन बड़ा अद्भुत है वह असीम और अगाध है, यह अनन्त रहस्यों को लिये
हुये है। यह एक विशाल साम्राज्य है जहां हम मानव कर्म करते हैं और यदि हम अपने
आपको केवल आजीविका के लिये तैयार करते हैं तो हम जीवन का पूरा लक्ष्य ही खो
देते हैं। कुछ परीक्षायें उत्तीर्ण कर लेने और रसायनशास्त्र अथवा अन्य किसी विषय में
प्रवीणता प्राप्त कर लेने की अपेक्षा जीवन को समझना कहीं ज्यादा कठिन है।’’
शिक्षा के अनेक रूप माने जाते हैं हम उनका संक्षिप्त अध्ययन करेंगे-

औपचारिक शिक्षा- 

व्यवस्था की दृष्टि से शिक्षा के तीन रूप है- औपचारिक,
निरौपचारिक और अनौपचारिक। वह शिक्षा जो विद्यालयों, महाविद्यालयों और विण्वविद्यालयों
में दी जाती है, औपचारिक शिक्षा कही जाती है। इसके उद्देश्य, पाठ्यचर्या और शिक्षण
विधियां सभी निश्चित होते हैं। यह योजनाबद्ध हेाती है और इसकी योजना बड़ी कठोर
होती है। इसमें सीखने वालों को विद्यालय समय सारिणी के अनुसार कार्य करना होता
है। यह शिक्षा व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। यह
शिक्षा व्यय साध्य होती है। इसे कई स्तरों पर व्यवस्थित किया जाता है प्रत्येक स्तर
पर परीक्षा और प्रमाण-पत्र की व्यवस्था की जाती है।

अनौपचारिक शिक्षा- 

वह शिक्षा जिसकी याजे ना नहीं बनायी जाती न ही
निश्चित उद्देश्य होते हैं, न पाठ्यचर्या और न शिक्षण विधियॉ और जो आकस्मिक रूप
से सदैव चलती रहती हैं उसे अनौपचारिक शिक्षा कहते हैं। इस प्रकार की शिक्षा मनुष्य
के जीवन भर चलती रहती है। परिवार एवं समुदाय में रहकर हम जो सीखते हैं उसमे
ंसे वह सब जो समाज हमें सिखाना चाहता है अनौपचारिक शिक्षा की कोटि में आता
है। मनौवैज्ञानिकों का कहना है कि मनुष्य के व्यक्तित्व का तीन चौथाई निर्माण उसके
पहले पॉच वर्षों में हो जाता है और इन वर्षों में शिक्षा प्राय: अनौपचारिक रूप से ही
चलती है।

निरौपचारिक शिक्षा- 

वह शिक्षा जो न तो औपचारिक शिक्षा की भांति
विद्यालयी शिक्षा की सीमा में बांधी जाती है और न अनौपचारिक शिक्षा की भांति
आकस्मिक रूप से संचालित होती है, निरौपचारिक शिक्षा कहलाती है। इस शिक्षा का
उद्देश्य, पाठ्यचर्या और शिक्षण विधियां प्राय: निश्चित होते हैं, परन्तु औपचारिक शिक्षा
की भांति कठोर नहीं होते। यह शिक्षा लचीली होती है। इसका उद्देश्य प्राय: सामान्य
शिक्षा का प्रसार और सतत् शिक्षा की व्यवस्था करना होता है। इस पाठ्यचर्या को
सीखने वालों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर निश्चित की जाती है। समय व
स्थान भी सीखने वालों की सुविधा को ध्यान में रखकर निश्चित किया जाता है। यह
शिक्षा व्यक्ति की शिक्षा को निरन्तरता प्रदान करने का कार्य करती है। निरौपचारिक शिक्षा के भी अनेक रूप हैं। जैसे प्रौढ़ शिक्षा, खुली शिक्षा, दूर शिक्षा और जीवन पर्यन्त शिक्षा अथवा सतत् शिक्षा।

प्रौढ़ शिक्षा –

इस प्रकार की शिक्षा 15-35 वर्ष की आयु वर्ग के निरक्षर एवं अशिक्षित
व्यक्तियों को शिक्षा प्रदान करने के लिये होती है। यह शिक्षा उन्हें जीवन जीने की कला,
अधिकार एवं कर्तव्यों का ज्ञान, आर्थिक अभिक्षमता तथा भावी समाज के निर्माण हेतु
योग्य बनाती है। यह शिक्षा देश मे सम्पूर्ण साक्षरता के लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायक
है।

खुली शिक्षा- 

खुली शिक्षा, शिक्षा के क्षत्रे में एक नया आन्दोलन है। न आयु, न
योग्यता, न समय और न स्थान न पाठ्यक्रम का बंधन और न ही कक्षा शिक्षण बंधन,
वाली शिक्षा है, इसलिये इसे खुली शिक्षा कहा गया है। खुली शिक्षा को बढ़ावा देने में
इवान इलिच का बहुत बड़ा हाथ है। उनकी पुस्तक ‘‘दी स्कूलिंग सोसाइटी’’ में उन्होंने
खुली शिक्षा के सकारात्मक पक्ष उजागर किये। यूरोप में इस शिक्षा को काफी सफलता
मिली इसके पाठ्यक्रम अति विस्तृत और जीवनोपयोगी है। हमारे देश में खुली शिक्षा
का शुभारम्भ सबसे पहले 1977 ई0 में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में हुआ। यह शिक्षा पत्राचार,
आकाशवाणी, टेपरिकार्डर, कैसेट्स, दूरदर्शन और वीडिया कैसेट्स के माध्यम से दी
जाती है। इसके माध्यम से शिक्षण व्यवस्था करने में नवीनता व रोचकता रहती है।

दूर शिक्षा- 

दूर शिक्षा मूलत: किसी देश के दूर -दराज में रहने वाले उन व्यक्तियो को
शिक्षा सुलभ कराने का एक विकल्प है जो औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं।
सीखने वालो को किसी भी शिक्षण संस्थान में नहीं जाना पड़ता वरन् अपने स्थान पर
पत्राचार, आकाशवाशी, टेप रिकार्डर कैसेट या दूरदर्शन, विडियो कैसेट्स के माध्यम से
शिक्षा प्राप्त करते हैं। इस शिक्षा का श्रीगणेश 1856 में बर्लिन(जर्मनी) में हुआ है। हमारे
देश में दूर शिक्षा का श्रीगणेश सर्वप्रथम विण्वविद्यालयी शिक्षा के क्षेत्र में हुआ। यह उन
लोगों के लिये सुअवसर उपलब्ध कराती है, जो किसी भी कारण शिक्षा नहीं प्राप्त कर
पाते हैं। दूर शिक्षा की पाठ्य सामग्री एवं शिक्षण विधियों के क्षेत्र में निरन्तर शोध एवं
परिवर्तन होते रहते हैं, ये सदैव अद्यतन एवं उपयोगी होते हैं।

जीवन पर्यन्त शिक्षा – 

जीवन पर्यन्त शिक्षा का अर्थ है व्यक्ति द्वारा बदली हुयी
परिस्थितियों में कुशलतापूर्वक समायोजन करने के लिये जीवन पर्यन्त अद्यतन ज्ञान की
प्राप्ति अथवा कौशल में प्रशिक्षण अथवा तकनीकी की जानकारी देना। काम के साथ
शिक्षा ही इसकी विशेषता है। यह सतत् शिक्षा का विशिष्ट रूप है। प्राचीन काल में भी
आजीवन शिक्षा सम्बंधी तथ्य या कि ज्ञान का भण्डार असीमित है अत: इसकी प्राप्ति हेतु
अवकाशकाल में जीवन भर अध्ययन करना चाहिये। यह शिक्षा मनुष्य को हर समय
अद्यतन ज्ञान एवं कौशल प्राप्त करने हेतु अवसर सुलभ कराती है, और उसे नयी
परिस्थितियों में समायोजन की कुशलता विकसित करती है। यह निरन्तर मनुष्य की
समझ व कार्यकुशलता को विकसित करती है।

सामान्य शिक्षा- 

विषय क्षेत्र की दृष्टि शिक्षा के दो रूप होते है। सामान्य और
विशिष्ट। वह शिक्षा जो किसी समाज के प्रत्येक मनुष्य के लिये आवश्यक होती है, वह
सामान्य शिक्षा कहलाती है। इसके द्वारा समाज की सभ्यता एवं संस्कृति का
हस्तान्तरण होता है। यह उदार शिक्षा कहलाती है। यह शिक्षा मनुष्य की परम
आवश्यकता होती है। इस शिक्षा में मनुष्य के चरित्र एवं आचरण पर अधिक बल दिया
जाता है। यह समाज के आर्थिक उत्थान में सहायक नहीं हो पाती है।

विशिष्ट शिक्षा- 

वह शिक्षा जो किसी समाज के व्यक्तियों को विशिष्ट उद्देश्य सामने
रखकर दी जाती है विशिष्ट शिक्षा कहलाती है। इसके द्वारा मनुष्य को एक निश्चित
कार्य- जैसे बढ़ईगिरी, लोहारगिरी, कताई-बुनाई अध्यापन आदि के लिये तैयार किया
जाता है। इसे व्यावसायिक शिक्षा भी कहते हैं। यह शिक्षा से मनुष्य की सण्जनात्मक
शक्तियों को विकसित किया जाता है। इस शिक्षा द्वारा ही कोई व्यक्ति समाज अथवा
राष्ट्र में व्यावसायिक उन्नति करता है और आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न होता है।
दोनों ही प्रकार की शिक्षा का अपना-अपना महत्व है। मनुष्य को मनुष्य एवं
सामाजिक प्राणी बनाने के लिये सामान्य अर्थात् उदार शिक्षा की आवश्यकता होती है
तो दूसरी ओर अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विशिष्ट एवं व्यावसायिक शिक्षा
की आवश्यकता होती है।

सकारात्मक शिक्षा- 

शिक्षण विधि के आधार पर शिक्षा को सकारात्मक एवं नकारात्मक
दो रूपों में विभक्त किया जाता है। सकारात्मक शिक्षा में हम अपने नव आगन्तुक पीढ़ी
को अपनी जाति के अनुभवों एवं आर्दशों से कम समय में ही परिचित कराने का प्रयास
करते है। सत्य बोलना मानव धर्म निभाना, धर्म का पालन करना, झूठ न बोलना आदि
सकारात्मक शिक्षा है परन्तु इस प्रकार सीखा हुआ ज्ञान स्थायी नहीं होता है।

नकारात्मक शिक्षा-

नकारात्मक शिक्षा वह है जिसमें बच्चों को स्वय अनुभव करके
तथ्यों की खोज करने एवं आर्दशों का निर्माण करने के अवसर दिये जाते हैं, अध्यापक
तो केवल, इन तथ्यों की खोज एवं आर्दणों के निर्माण के लिये बच्चों को अवसर प्रदान
करता है और उनका दिशा निर्देशन करता है। इस प्रकार सीखा हुआ ज्ञान स्थायी होता
है।
करके सीखने एवं स्वानुभव द्वारा सीखने से ज्ञान स्थायी होता है, परन्तु इसके
लिये शक्ति और परिपक्वता चाहिये। मनुष्य को अपने जाति द्वारा दिये गये पूर्व के
अनुभवों से लाभ उठाना चाहिये। बच्चों को अनुभव एवं आर्दश सीधे बताकर उन्हें उनके
जीवन के सम्बंधित कर दिये जाये और प्रयोग एवं तर्क द्वारा उनकी सत्यता स्पष्ट कर
दिया जाना चाहिये।

शिक्षा के साधन

साधन अंग्रेजी शब्द ‘‘एजेन्सी’’ का हिन्दी रूपान्तरण है- एजेन्सी का अर्थ है
एजेन्ट का कार्य। एजेन्ट से हमारा अभिप्राय उस व्यक्ति या वस्तु से होता है, जो कोई
कार्य करता है या प्रभाव डालता है। अत: शिक्षा के साधन- वे तत्व कारण स्थान या
संस्थायें है जो बालक पर शैक्षिक प्रभाव डालते हैं। समाज ने शिक्षा के कार्यों को करने
के लिये अनेक विशिष्ट संस्थाओं का विकास किया है। इन्हीं संस्थाओं को शिक्षा के साधन कहा जाता है। इनको इस प्रकार वर्गीकश्त किया गया है।
  1. औपचारिक और अनौपचारिक
  2. निष्क्रिय एवं सक्रिय साधन

औपचारिक और अनौपचारिक

    जॉन डी0वी0 ने शिक्षा के औपचारिक और अनौपचारिक साधनों को शिक्षा की
    साभिप्राय और आकस्मिक विधियां बताया है। हैण्डरसन ने लिखा है- जब बालक
    व्यक्तियों के कार्यों को देखता है उसका अनुकरण करता है और उनमें भाग लेता
    है तब वह अनौपचारिक रूप से शिक्षित होता है। जब उसको सचेत करके जान
    बूझकर पढ़ाया जाता है, तब वह औपचारिक रूप शिक्षा प्राप्त करता है।’’
    1. औपचारिक साधन- शिक्षा के ये साधन याजे नाबद्ध होते है। इनके नियम
      व योजना निश्चित हेाते हैं। इनमें प्रशिक्षित व्यक्ति देखभाल करते हैं। यह
      शिक्षा किताबी व विद्यालयीय शिक्षा भी कहलाती है। इनके अन्तर्गत स्कूल
      पुस्तकालय, चित्र भवन एवं पुस्तक आते हैं।
    2. अनौैपचारिक साधन- शिक्षा के अनौपचारिक साधनों का विकास स्वाभाविक
      रूप से होता है। इसकी न तो योजना न ही नियम होते है। ये बालकों के
      आचरण का रूपान्तरण करते हैं पर यह प्रक्रिया अज्ञात अप्रत्यक्ष और
      अनौपचारिक होती है। इसके अन्तर्गत परिवार, धर्म, समाज, राज्य रेडियो,
      समाचार-पत्र आदि आते हैं।
    औपचारिक शिक्षा बड़ी सरलता से तुच्छ निर्जीव अस्पष्ट और किताबी बन
    जाती है। औपचारिक शिक्षा जीवन के अनुभव से कोई सम्बंध न रखकर केवल
    विद्यालयों की विषय सामग्री बन जाती है। वही दूसरी ओर बालक अनौपचारिक ढंग
    से दूसरों के साथ रहकर शिक्षा प्राप्त करता है और साथ रहने की प्रक्रिया ही शिक्षा
    देने का कार्य करती है। यह प्रक्रिया अनुभव को विस्तृत करती है।

    सक्रिय व निष्क्रिय साधन-

    1. सक्रिय साधन- सक्रिय साधन सामाजिक प्रक्रिया पर नियत्रंण रखने और उसको एक
      निश्चित दिशा देने का प्रयत्न करते हैं। इनमें शिक्षा देने वाले और शिक्षा प्राप्त करने वाले
      में प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया होती है, दोनों एक दूसरे पर क्रिया प्रतिक्रिया करते हैं। सक्रिय
      साधन के उदाहरण हैं- परिवार, समाज, राज्य, स्कूल, आदि।
    2. निष्क्रिय साधन-निष्क्रिय साधन वे हैं जिनका प्रभाव एक तरफा होता है। इनकी
      प्रक्रिया एक ओर से होती है, क्योंकि ये एक ही को प्रभावित करते हैं। इस प्रक्रिया में
      एक पक्ष सक्रिय होता है और दूसरा निष्क्रिय। ये साधन दूसरों को तो प्रभावित करते
      हैं पर स्वयं दूसरों से प्रभावित नहीं होते हैं। निष्क्रिय साधनों के उदाहरण हैं- सिनेमा,
      टेलीविजन, रेडियो, प्रेस इत्यादि।

    शिक्षा के कार्य

    शिक्षा गतिशील है। डेनियल बेक्स्टर के अनुसार- ‘‘शिक्षा का कार्य भावनाओं
    को अनुणासित, संवेगों को नियंत्रित, प्रेरणाओं को उत्तेजित, धार्मिक भावना को विकसित
    और नैतिकता को अभिवृद्धित करना है।’’इसी प्रकार जॉन डी0वी0 के अनुसार- ‘‘शिक्षा
    का कार्य असहाय प्राणी के विकास में सहायता पहॅुचाना है ताकि वह सुखी, नैतिक और
    कुशल मानव बन सके।’’ शिक्षा का कार्य देश और काल के अनुरूप बदलता रहता है,

      मानव जीवन में शिक्षा के कार्य – 

      उत्तम नागरिक उत्तम राज्य का आधार स्तम्भ
      होता है। और उत्तम नागरिक वह है जो कि अपने एवं राष्ट्र दोनों के लिये उपयोगी
      हो अर्थात् मानव जीवन में बदलाव लाने का कार्य शिक्षा का ही है। मानव जीवन में शिक्षा
      यह कार्य करती है-
      1. मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का विकास मार्गान्तीकरण और
        उदात्तीकरण- 
        मनुष्य कुछ मूलभूत शक्तियों को लेकर पैदा होता है शिक्षा
        का कार्य इन शक्तियों का विकास करना है। मानव के शक्तियों का विकास
        व्यक्ति और समाज दोनेां के हितों को ध्यान में रखकर किया जाता है। वह
        मूलभूत प्रवश्त्यात्मक व्यवहार से सामाजिक व्यवहार की ओर उन्मुख होता है।
      2. संतुलित व्यक्तित्व का विकास- शिक्षा का प्रमुख कार्य सतुंलित व्यक्तित्व
        का विकास करना भी है। व्यक्तित्व के अन्तर्गत शारीरिक, मानसिक, नैतिक,
        आध्यात्मिक एवं संवेगात्मक पक्ष आते हैं। शिक्षा इन सभी पहलुओं का संतुलित
        विकास करती है।
      3. चरित्र निर्मार्ण्ण एवं नैतिक विकास- शिक्षा का अति महत्वपूर्ण कार्य चरित्र
        का निर्माण एवं उसका नैतिक विकास करना है। शिक्षा के इस कार्य पर डॉ0
        राधाकृष्णन ने बल देते हुये लिखा है- ‘‘चरित्र भाग्य है। चरित्र वह वस्तु है
        जिस पर राष्ट्र के भाग्य का निर्माण होता है। तुच्छ चरित्र वाले मनुष्य श्रेण्ठ
        राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते हैं।’’
      4. सामाजिक भावना का समावेश – व्यक्ति समाज का अभिन्न अगं है। समाज से
        दूर रहकर जीना असम्भव है, अत: यह आवश्यक है कि उसमें सामाजिक गुणों का
        विकास किया जाये। सामाजिक गुणों के विकास का कार्य भी शिक्षा का ही है। एच0
        गार्डन के अनुसार- ‘‘शिक्षक को यह जानना आवश्यक है कि उसे सामाजिक प्रक्रिया
        में उन व्यक्तियों को समझना चाहिये जो इसे समझने में असमर्थ हैं।’’
      5. आवश्यकताओं की पूर्ति- समाज में शिक्षा का प्रमुख कार्य आवश्यकताओ की पूर्ति
        है, जीवधारी होने के कारण उसकी कुछ मूलभूत आवश्यकतायें है। रोटी, कपड़ा और
        मकान प्रमुख है इन सभी को प्राप्त करने योग्य बानाने का कार्य शिक्षा का है। स्वामी
        विवेकानन्द ने शिक्षा के इस कार्य की ओर इंगित करते हुये स्पष्ट लिखा है कि –
        ‘‘शिक्षा का कार्य यह पता लगाना है कि जीवन की समस्याओं को किस प्रकार से कम
        किया जाये और आधुनिक सभ्य समाज का ध्यान इस ओर लगा हुआ है।’’
      6. आत्मनिर्भरता की प्राप्ति- मानव जीवन में शिक्षा का एक प्रमुख कार्य व्यक्ति को
        आत्म निर्भर बनाना है। ऐसा व्यक्ति समाज के लिये भी सहायक होता है, जो अपना
        भार स्वयं उठा लेता है। भारत जैसे विकासशील समाज में व्यक्ति को आत्म निर्भर
        बनाने का कार्य शिक्षा का है। स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा के इस कार्य को इंगित करते
        हुये लिखा था- ‘‘केवल पुस्तकीय ज्ञान से काम नहीं चलेगा। हमें उस शिक्षा की
        आवश्यकता है जिससे कि व्यक्ति अपने स्वयं के पैरों पर खड़ा हो सकता है।’’
      7. व्यावसायिक कुशलता की प्राप्ति हमारा देश बडी़ तेजी से विकास की ओर बढ़
        रहा है। वैण्वीकरण के दौर में हमें ऐसे मानव संसाधन की आवश्यकता है जो कुशल
        हो और अर्थ व्यवस्था के विभिन्न पक्षों में अपना उत्तरदायित्व निभा सकें। ऐसे मानव
        संसाधन तैयार करने का कार्य शिक्षा का है। डॉ0 राधाकृष्णन के अनुसार- ‘‘प्रयोगात्मक
        विषयों में प्रशिक्षित व्यक्ति कृषि और उद्योग के उत्पादन को बढ़ाने में सहायता देते है।
        ये विषय सरल एवं रोजगार पाने में सहायक होते है। शिक्षा का कार्य है- अर्थकारिका
        विद्या।’’
      8. जीवन के लिये तैयारी- विलमॉट ने स्पष्ट कहा है कि- ‘‘शिक्षा जीवन की तैयारी
        है।’’ इससे स्पष्ट है कि शिक्षा का प्रमुख कार्य बच्चों को जीवन के लिये तैयार करना
        है। शिक्षा के इस कार्य पर विचार करते हुये स्वामी विवेकानन्द ने स्पष्ट लिखा है कि-
        ‘‘क्या वह शिक्षा कहलाने के योग्य है जो सामान्य जन समूह को जीवन के संघर्ष के
        लियें अपने आपको तैयार करने में सहायता नही देती है और उनमें शेर सा साहस न
        उत्पन्न कर पाये।’’
      9. आध्यात्मिक विकास- भारतीय सस्ं कश्ति का सम्बन्ध चिरकाल स े आध्यात्मिकता रही
        है। शिक्षा का एक प्रमुख कार्य मानव को उस पूर्ण एवं वास्तविक शक्ति का आभास
        कराना है। श्री अरविन्द ने लिखा है- ‘‘शिक्षा का उद्देश्य – विकसित होने वाली आत्मा
        को सर्वोत्तम प्रकार से विकास करने में सहायता देना और श्रेण्ठ कार्य के लिये उसे पूर्ण
        बनाना है।’’
      10. वातावरण से अनुकूलन- वातावरण मनुष्य को स्वयं शिक्षित करता है और मनुष्य को
        प्रभावित करता है। वातावरण से अनुकूलन न कर सकने के कारण व्यक्ति का जीवन
        दुरूह हो जाता है। इस सम्बंध में टॉमसन ने लिखा है- ‘‘वातावरण शिक्षक है, और
        शिक्षा का कार्य-छात्र को उस वातावरण के अनुकूल बनाना, जिससे कि वह जीवित रह
        सके और अपनी मूल-प्रवण्त्तियों को सन्तुष्ट करने के लिये अधिक से अधिक सम्भव
        अवसर प्राप्त कर सके।’’
      11. वातावरण का रूप परिवर्र्तन- शिक्षा का एक प्रमुख कार्य व्यक्ति को वातावरण का
        रूप परिवर्तन करने या उसमें सुधार करने के योग्य बनाना है, यदि शिक्षा द्वारा व्यक्ति
        में अच्छी आदतों का निर्माण कर दिया जाये तो वह वातावरण में परिवर्तन कर सकता
        है। जॉन ड्यूवी ने लिखा है- ‘‘वातावरण से पूर्ण अनुकूलन करने का अर्थ है मृत्यु।
        आवश्यकता इस बात की है कि वातावरण पर नियंत्रण रखा जाये।’’
            

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